बुधवार, 29 अप्रैल 2009

चुनाव का सारा भार पत्रकारों पर

सैर से लौटते हुए पंडित शिवानंद से मुठभेड़ हो गई। यूं तो पंडित जी से अक्सर भेंट हो जाती थी, लेकिन सुबह-सुबह चंदन में लिपटे पंडित जी चुनावी चर्चा में उलझाने के मुड से मिले थे। इसलिए उनकी ये मुलाकात मुठभेड़ की कैटेगरी में ही रखी जी सकती है। पूजा का लिबास और बातचीत का अंदाज कुछ खास, मानो वो भी चुनाव के रंग में रंगे हुए हों। यूं कहें किसी चुनावी पोस्टर में लिपटे हुए से लग रहे थे। वैसे चेहरा शांत था, कोई आक्रोश नहीं, चेहरे पर ना वाणी में। अभिवादन का भी पूरा वक्त नहीं दिया और सीधे सवाल सरका दिया-पत्रकार जी! अपने क्षेत्र में किस गधे को जिता रहे हो। सवाल में तंज रिस रहा था। मैंने उल्टे उन्हीं से सवाल किया- पंडित जी आज आप ‘पत्रकार जी’ कहकर व्यंग्य कर रहे हैं, कोई खास बात है क्या।
पंडित जी ने गंजे सिर पर हाथ फिराते हुए कहा- पत्रकार जी! चुनावी सीजन है। हमारे देश में चुनावी रथ नेता नहीं, पत्रकार खींचते हैं। चुनावी अखाड़े में उतरे नेताओं का वजन कूतते हैं। आपकी बिरादरी पर भारी बोझ आ जाता है। रात दिन आप देश सेवा में जुटे रहते हैं। सच पूछो, आप लोकतंत्र में चुनावी यज्ञ संपन्न कराने के लिए दिन-रात तपस्या करते हैं। चारों ओर पत्रकारों की ज्ञान गंगा बह रही होती है। पूरा देश उसमें डुबकी लगाता है। ऐसे तपस्वी पत्रकार की इज्जत करना हर नागरिक का पहला धर्म होना चाहिए। जब किसी पत्रकार को सम्मान के साथ ‘पत्रकार जी’ कहकर संबोधित करता हूं तो मानो मैं उसी धर्म का पालन कर रहा हूं।
पत्रकार जी! चैनल और अखबार क्या दिखा रहे हैं, छाप रहे हैं, मुझे उससे ज्यादा सरोकार नहीं है। आप तो ये बताइए अपने क्षेत्र में कौन गधा जीत रहा है। आप पूरे देश का लेखा-जोखा रखते हैं। टेबल पर बैठे-बैठे महाभारत के संजय की तरह 543 लोकसभा क्षेत्रों के हालात देख लेते हैं। किसी एक पार्टी या गठबंधन की सरकार भी बना देते हैं। मध्यावधि चुनाव की भविष्यवाणी भी कर देते हैं। इतना ज्ञान है आपके पास। आप बताइए अपने इलाके में कौन गधा हमारे मत का पात्र है। कौन जीत रहा है, अपन भी उसी के साथ हो जाएंगे।
थोड़ा-थोड़ा समझ में आ रहा था कि पंडित जी व्यंग बाण क्यों चला रहे हैं। पंडितों और ज्योतिषाचार्यों का कारोबार जो ठंडा पड़ा है। जनता का ध्यान सर्वे पर है। लोग अखबार पढ़ रहे हैं, टीवी देख रहे हैं। सभी जानते हैं कि कभी किसी का सर्वे सटीक नहीं रहा। फिर भी दिलचस्पी कम नहीं हो रही है। यहीं एक ऐसा पेशा है जिसमें झुठ बोलकर माफी मांगने की परंपरा नहीं है। आजतक किसी चैनल और अखबार ने सर्वे गलत होने पर कभी शर्मिंदगी का भाव प्रकट नहीं किया। आज पंडित जी पूरी तरह शर्मिंदा करने पर आमादा थे। बोले पत्रकार जी! कुछ तो बताइए। वैसे भी आपका आकलन गलत निकला तो हम आपको कटघरे में थोड़े ही खड़ा करेंगे। पंडित जी बड़ी विनम्रता से भिगो-भिगोकर वहीं मार रहे थे जो आजकल नेताओं की ओर मिसाइल की तरह चल जाते हैं। हमने पलटवार किया। पंडित जी! आप भी तो भविष्यवाणी करते हैं। नेताओँ का भाग्य पढ़ते हैं। सरकार बनाते-गिराते हैं। नेताओं की कुंडली में ग्रहों के घर बदलते रहते हैं। आप बताइए, अपने इलाके में कौन पहनेगा ताज। देखिए पत्रकार जी! हम भविष्यवाणी तो त्रिकालदर्शी पत्रकारों के सर्वे आने के बाद ही करते हैं। अभी थोड़ा समय लगेगा। सच पूछो तो पत्रकार ज्ञान के भंडार हैं, उन्हें दुनिया जहान की सारी जानकारी होती है। आप ज्ञानियों की सुनकर ही हम कुछ बोलेंगे। जवाब सूझ नहीं रहा था। पंडित जी अपने सात्विक किस्म के लजाने वाले विचारों को लालू के गरीब रथ की तरह ‘विजयी भाव’ से मेरी ओर ठेले जा रहे थे। मैंने कहा-पंडित जी। अच्छे भले इंसान चुनावी दंगल में लड़ रहे हैं। आप बार-बार उन्हें गधा क्यों कह रहे हैं ।पंडित जी थोड़े तैश में आए, थोड़ा थुथने फुलाए, थोड़ा गला साफ किया और बलगम को पूरी ताकत के साथ बगल की झाड़ी में विसर्जित करने के बाद बोले क्या बात कर रहे हैं पत्रकार जी। बात-बात में झूठ बोले, झूठे वायदे करे, वोट लेने के बाद पांच साल शक्ल ना दिखाए, सार्वजनिक धन पर नजर गड़ाए रखे, योग्य लोगों को प्रोत्साहन देने के बजाय रिश्ते-नातेदारों को आगे बढ़ाए। ऐसे लोगों को आप इंसान कहते हैं ? पत्रकार जी! हमारी लोकतांत्रिक विवशता है, ऐसे ही लोगों में से किसी एक को चुनना है। लोकतंत्र के महाकुंभ में मतदान की पवित्र सरिता में डुबकी लगाकर ‘पुण्य’ तो कमाते हैं लेकिन उस पुण्य का फल पूरे समाज के बजाय चंद लोग खा जाते हैं। हर चुनाव में यहीं होता है। हर बार इस उम्मीद के साथ मतदान केंद्र पर जाकर मशीन का बटन दबाते हैं कि शायद इस बार उम्मीदों पर खरा उतरने वाला नेता इस मशीन से बाहर आ जाए। हर बार निराशा हाथ लगती है लेकिन फिर भी हम मतदान की लोकतांत्रिक परंपरा को जरूर निभाते हैं। मतदान हमारा अधिकार है और यही अधिकार एक दिन बदलाव लाएगा।
पंडित जी कथावाचन की शैली में अपनी बात कहे जा रहे थे। अचानक उन्होंने पैंतरा बदला और मीडिया को भी घसीट लाए अपनी भावनाओं के झंझावत में। पत्रकार जी! निकम्मे, झूठे और लंपट नेताओं से मोहभंग हो गया है। ऐसे नेताओं से आप पत्रकार ही निपट सकते हैं। बराबरी का मुकाबला रहता है। आप लोग ना हों तो ना जाने ये नेता क्या कर दें। इसलिए चौथा स्तंभ ताकतवर माना जाता है। इस ताकतवर चौथे स्तंभ के त्रिकालदर्शी पत्रकारों को मेरा शत-शत प्रणाम।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

प्रभाष जी, मेरी भी सुन लीजिए

श्रद्धेय प्रभाष जोशी जी का इंटरव्यू पढ़ा। मेरे बारे में उनके कहे गए अंश का जवाब देना चाहूंगा। लेकिन कुछ भी कहने से पहले उनसे हज़ार बार माफ़ी मांग लेता हूं। जब उन्होने कहा है तो जवाब देना भी ज़रूरी है। माफ़ी मांगने की दो वजहें हैं। एक,वो उम्र और अनुभव दोनों में ही मेरे से कहीं आगे हैं। इस नाते उनका सम्मान करता हूं। ये बात मैं पहले भी कह चुका हूं। दो, उनके "अपने" को पीड़ा होगी। छद्म नामों से मुझे धमकियां देंगे। मैं अदना सा पत्रकार हूं.धमकियों से डर लगता है। ख़ैर, अपनी बात शुरू करता हूं। मेरी सुनने से पहले वो अंश आप ज़रूर पढ़िए ,जो आदरणीय प्रभाष जी ने मेरे बारे में कहा है। कह रहे हैं। इन शब्दों को पढ़ने के लिए इसलिए आग्रह कर रहा था ताकि आप मेरी बात को ठीक से समझ सकें। जी ,मैं टीवी पर काम करता था। दिसबंर में स्वर्गीय कमलेश्वर जी ने मुझे न्यूज़ कास्टर एप्रूव किया था। तब कमलेश्वर जी दूरदर्शन न्यूज़ के हेड थे। उन दिनों स्क्रीन पर आने से पहले लंबी प्रक्रिया से गुज़रना होता था। लिखित परीक्षा,वॉयस टेस्ट और अंत में स्क्रीन टैस्ट। पांच विशेषज्ञों की कमेटी फ़ैसला करती थी। इस प्रक्रिया में मैं क़ामयाब रहा और दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मुझे बुलेटिन पढ़ने को दिया गया। उन दिनोंशाम छह बजे दो मिनट का बुलेटिन टेलीकास्ट होता था। न्यूज़कास्टर ( जो अब एंकर कहलाते हैं) खड़ा होकर बुलेटिन पढ़ता था। उसी बुलेटिन से मैंने दूरदर्शन में काम करने की शुरूआत की। क़रीब डेढ़ साल बाद जनसत्ता में भर्ती होने का विज्ञापन निकला। वहां भी कड़ी प्ररीक्षा से गुज़रकर नौकरी हासिल की। सरकारी नौकरी छोड़कर जनसत्ता गया था। प्रभाष जी ने साफ कहा था कि ज़्यादा नहीं दे पाएंगे। जितना पा रहे हो, उससे कम नहीं होने देंगे। पहली तनख़्वाह पर पैसा कम मिला था,जिसे प्रभाष जी ने तुरंत कंपसेट कर दिया था। मेरी भूल थी कि मैंने दूरदर्शन में काम करने का ज़िक्र नहीं किया। पर कुछ दिनों बाद प्रभाष जी को ख़ुद ही पता चल गया था। उन्होने इस पर एतराज़ किया लेकिन बाद में मेरे एक सहयोगी( जो िस समय बड़े प्रतिष्ठान में संपादक हैं ) के आग्रह करने पर दूरदर्शन में समाचार वाचन की मौखिक मंज़ूरी दे दी। उन्होने एक बार स्क्रीन पर मुझे देखकर मेरी टाई पर टिप्पणी भी की थी और अच्छी टाई पहनने की सलाह देते हुए मुझे एक टाई भी भेंट की थी। वो टाई आज भी मेरे पास है। सहेजकर रखी है उसी " पत्र " की तरह। अब आप ख़ुद ही फ़ैसला कर लीजिए कि क्या मैं उनकी मर्ज़ी के खिलाफ दूरदर्शन में काम कर रहा था.

शायद मार्च का महीना रहा होगा.उन्होने प्रोमोशन का पत्र एच.आर. मंगाकर अपने पास रख लिया। शर्त लगा दी- दूरदर्शन छोड़ दो और प्रोमोशन लेटर ले जाओ। मुझे दुख इस बात का था कि संपादक एचआर का काम कर रहा था। संपादक प्रोमोशन के लिए संस्तुति करता है.प्रोमोशन लेटर एच.आर.देता है। किसी भी संस्थान में दोहरे मापदंड नहीं होते। भोपाल संवाददाता को बीबीसी के लिए काम करने की इजाज़त दी गई थी। वो जनसत्ता के ख़र्चे पर कवरेज के लिए जाता था और ख़बर छपने से पहले बीबीसी को भी मुहैय्या कराता था। उसे एक के बाद एक प्रोमोशन देकर मार्केटिंग विभाग से उठाकर पत्रकार बनाया गया। इसलिए भाषा और ख़बरों से कोई रिश्ता नहीं था। जनसत्ता में किसी भी उप संपादक दो देर से आने का दंड देने के लिए उन्ही संवाददाता की कॉपी एडिट करने के लिए दी जाती थी। आप कहेंगे कि ऐसे अयोग्य व्यक्ति बीबीसी के लिए कैसे काम कर सकता है। बड़े बैनर से जुड़े व्यक्ति की योग्यता नहीं परखी जाती,उसे साख पर काम दे दिया जाता है। और फिर स्वर्ग में सभी पालकियों में नहीं चलते,पालकी ढोनेवाले भी होते हैं।

मैंने ये दलील दी थी कि दूरदर्शन कभी आफिस टाइम में नहीं जाता। पर एक न सुनी गई। प्रोमोशन रोक दिया गया। खुन्नस कुछ और थी। एक्सप्रेस ग्रुप में दो बार हड़ताल हुई। प्रभाष जी ने हड़ताल तुड़वाकर चंडीगढ़ से अख़बार निकलवाने की कोशिश की। संपादक के नाते उन्हे ऐसा करना भी चाहिए था। लेकिन उनके कहने पर कुछ लोग हड़ताल तोड़ने को राज़ी नहीं हुए। उन्ही में से एक मैं था। दोनों बार मैं वर्करों के साथ जटा रहा। हड़ताल समर्थक जनसत्ताईयों की गाहे बगाहे दुर्गति देखने को मिलती थी। कुछ छोड़कर चले गए। एक साथी का निधन हो गया। मैं डटा रहा और ख़ामियाज़ा भुगतता रहा। बलबीर पुंज नेपथ्य से हड़ताल तु़ड़वाने में लगे थे। उन्हे जब भी मौक़ा मिलता , वो कर्मचारी को समझाते थे कि हड़ताल से कर्मचारियों का नुक़सान है। पहली हड़ताल क़रीब साठ दिन चली। सभी को पीड़ा थी प्रभाष जी के आदेश को न मानने की। हम हड़तालियों को सभी हड़ताल तोड़ू हेय नज़रों से देखते थे। वर्कर को दग़ा देने के अपराध में शर्मिंदा उन्हे होना चाहिए था, लेकिन हमें नीचा दिखाया जा रहा था। उनकी मेजोरिटी थी। हमारा सोशल बॉयकॉट किया गया। इसके अगुवा थे समचार संपादक जो बाद में जनसत्ता के संपादक भी बने। इस बॉयकॉट का मेरे उसी साथी ने विरोध किया,जिनका मैं दूरदर्शन में काम करने की इजाज़त दिलवाने के लिए प्रयास करने का ज़िक्र कर चुका हूं। दूसरी हड़ताल में भी इस घटना की पुनरावति हुई। मेरी पत्नी को भी समझाया गया था कि वो मुझे प्रभाष जी की सलाह माने लेने की थोड़ी अक्ल दे। मैंने उससे इतनी ही कहा- मुझे वो काम करने की सलाह मत दो,जिससे मुझे हमेशा अपराध बोध रहे और आजीवन शर्म से गड़ा रहूं। इस बार भी दो महीने बाद हड़ताल टूटी। दीपावली हड़ताल में मनीं। कैसी रही होगी दीपावली। रहली दीपावली भी बदरंग रही थी। इस बार फर्क इतना था हड़ताल टूटने के बाद हमारा सोशल बॉयकॉट नहीं हुआ।

प्रभाष जी ने कहा है कि गोयनका जी लोगों के बारे में गालियों से बात करते थे। जनसत्ता की 21 साल की नौकरी में गोयनका जी को दो बार देखा। एक बार गाड़ी से उतरकर दफ्तर जाते हुए और दूसरी बार खादी की बनियान ( बंडी)और दोती में ऊंचे स्वर में गालियां देते हुए। कई घंटों से बिजली गुल थी। उनका धैर्य टूट गया था और मैनजमैंट के लोगों को गालियां देते हुए बाहर चबूतरे पर आ गए थे। ये सच है कि वो गाली देते थे। लेकिन सिर्फ इर्द गिर्द रहनेवाले लोगों को। आप जानते है कि संपादक और प्रबंधन के आला अफसरों के अलावा और कौन उनके पास जाता होगा?