शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

एक आदर्श डॉक्टर का स्मरण

चेहरे पर चैन था, बच्चे के बचने की उम्मीद उसके हर शब्द से झलक रही थी। लंबे सफर की थकान कहीं आसपास भी नहीं थी। बोकारो के पास छोटे-से कस्बे फुसरो (बेरमो) से रात भर रेल का सफर तय कर कोलकाता (तब कलकत्ता नाम था) आए थे। छीतर मल गोयल जी को पिताजी ने भेजा था। उनके साथ उनकी पत्नी थी और उनकी गोद में ढाई-तीन साल का बच्चा था। पिताजी के बहुत करीबी थे इसलिए मैंने परिवार के सदस्य की तरह उनका स्वागत किया था। छीतर मल गोयल जी की पत्नी की गोद में जो बच्चा था वो एक खास तरह की बीमारी से तिल तिल कर मौत की और जा रहा था। इससे पहले उनके दो बच्चे इसी बीमारी से काल कवलित हो गए थे। बच्चे स्वस्थ पैदा होते थे; दो साल तक स्वस्थ रहते थे। उसके बाद जानलेवा बीमारी घेर लेती थी। दो बच्चों का स्थानीय अस्पतालों में इलाज करवाया लेकिन नहीं बच पाए। तीसरे बच्चे का इलाज करवाने कोलकाता आए थे। साल ठीक से याद नहीं है, 1974 या 1975 का साल रहा होगा। सरकारी नौकरी में मेरी पहली पोस्टिंग कोलकाता में हुई थी। उस बच्चे को इंस्टिट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ (आईसीएच) में दाखिल करवा दिया था। बच्चों के इलाज के लिए इससे बेहतर कोई अस्पताल नहीं था। बच्चा दाखिल करवाने के बाद पता चला कि डॉक्टर शिशिर कुमार बोस उस इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर हैं। मेरे ऑफिस के लोगों ने ही बताया था कि डॉक्टर शिशिर बोस साधारण इंसान नहीं हैं। वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरतचंद्र बोस के बेटे हैं यानी नेता जी के भतीजे हैं। यह सुनने के बाद आश्वस्त हो गया था कि इंस्टिट्यूट के प्रबंधन में ईमानदारी होगी; डॉक्टर कर्तव्यनिष्ठ होंगे; ईलाज में कोई कोताही नहीं होगी। करीब एक सप्ताह तक बच्चे की तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ; बल्कि तबियत थोड़ी बिगड़ गई थी। बच्चे के माँ पिता बहुत चिंता में थे। वे दोनों डॉक्टर शिशिर कुमार बोस के निजी क्लिनिक पर मिल कर सलाह लेना चाहते थे। मेरे पर दबाव बना रहे थे कि मैं उनके साथ जाऊँ। अखिरकार मैं उनके साथ डॉक्टर साहब के क्लिनिक पर गया। उन्होंने पर्याप्त समय दिया; तसल्ली से बात की। छीतर मल गोयल जी मारवाड़ी समाज से थे। उस समाज में यह मान्यता है कि डॉक्टर से सलाह लेने के बाद फीस अवश्य देनी चाहिए। फीस ना देना अपशकुन होता है। ऐसा मानते हैं कि रोगी की मृत्यु होने पर फीस नहीं दी जाती है इसलिए डॉक्टर शिशिर कुमार बोस को फीस देने की पेशकश की। उन्होंने फीस लेने से मना कर दिया। अपशकुन टालने के लिए छीतर मल जी फीस देने पर अड़े हुए थे। उनका धर्मसंकट समझ गया था इसलिए मैंने भी फीस लेने के लिए आग्रह किया। डॉक्टर ने कहा कि बच्चा जिस इंस्टिट्यूट में दाखिल है मैं उसका डायरेक्टर हूँ इसलिए फीस लेना अनैतिक है। फिर भी आप कंसल्टेशन फीस देना चाहते हैं तो दे दीजिए, मैं कल सुबह इंस्टीट्यूट जाकर डायरेक्टर पद से इस्तीफा दे दूँगा। भागदौड़ के बावजूद बच्चा तो नहीं बच पाया लेकिन डॉक्टर शिशिर कुमार बोस से अमूल्य अनुभव मिला। इस पूरी घटना से एक बात समझ आई कि शालीनता और ईमानदारी कोई दासी नहीं हैं जिन्हें जब चाहा सेवा के लिए बुला लिया और जब चाहा उन्हें भगा दिया। शालीनता और ईमानदारी कोई आवरण भी नहीं हैं कि छवि सुधारनी हो तो उसे ओढ़ लिया और बाद में उतार दिया। शालीनता और ईमानदारी संस्कार से आते हैं और संस्कार परिवार से मिलते हैं। डॉक्टर शिशिर कुमार बोस की शालीनता और ईमानदारी का आज भी कायल हूँ। उनके व्यवहार ने साबित कर दिया था उनकी रगों भी वही खून है जो नेता जी सुभाष चंद्र बोस की रगों में है। मैंने अखबार में पढ़ा था कि डॉक्टर शिशिर कुमार बोस विधायक हो गए थे और उनकी पत्नी कृष्णा बोस 1996 से 2004 तक सांसद थीं।

जिंदगी सुहानी होगी, सोच बदलें

13 अगस्त 2023 को सुबह चाय पीते हुए एक बच्ची का वीडियो देख रहा था; चार-पाँच साल की बच्ची का यह वीडियो मज़ाकिया अंदाज़ में बनाया गया है लेकिन कुछ सेकंड के वीडियो में जिंदगी की असलियत बयाँ की है। बच्ची कह रही है- *ज़ीदगी आपको बहुत दुःख देगी लेकिन उसे साफ़-साफ़ मना कर देना कि मुझे नहीं चाहिए* वीडियो के अंत में हर कोई यही सोचता होगा, मैंने भी सोचा कि काश! ऐसा होता और ज़िंदगी को साफ-साफ मना कर देते कि यह तकलीफ़ हमें नहीं चाहिए। इस वीडियो के बाद मुझे कृष्ण बिहारी नूर की एक ग़ज़ल की चार लाइनें भी याद आ गईं। उनमें बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ में ज़िंदगी को परिभाषित किया गया है। नूर साहब लिखते हैं- *ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या ज़ुर्म है पता ही नहीं।* *इतने हिस्सों में बँट गया हूं मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।* ज़िन्दगी को इसी शक्लो-सूरत में बॉलीवुड के कई गानों में भी देखा होगा। हर किसी की अपनी परिभाषा है और आप उसे जिस तरह परिभाषित करेंगे, उसी तरह से उसे जिएँगे भी। मेरा मानना है कि जिंदगी को संवारना और ख़ूबसूरत बनाना व्यक्ति के अपने वश में होता है। एक लंबी यात्रा के दौरान डगर में कहीं काँटे आते है तो फूल भी आते हैं। ज़िंदगी तो सुहाना सफर है; बस! सोच बदलनी पड़ती है।

बस का एक सफर

आजकल मेट्रो से यात्रा करता हूँ; जहाँ मेट्रो सीधी नहीं जाती, वहाँ के लिए बस तो है ही। दिल्लीवासियों के लिए बस का सहारा शाश्वत है; बस! बसों का रंग रूप बदलता है; चाल और हाल में कोई खास बदलाव नहीं है। बसें 'बस स्टैंड' पर नहीं रूकतीं; वर्षों से यही देख रहा हूँ। स्टैंड पर बस ना रोकने की कई बार ड्राइवरों की भी मजबूरी होती है; बस स्टैंड पर रेहड़ी और रिक्शा वालों नें क़ब्ज़ा किया हुआ है इसलिए बीच सड़क पर बस रोकी जाती है। महिलाएँ, बच्चे, दिव्यांग और सीनियर सिटीज़न बाधाएँ पार कर बस के दरवाज़े तक पहुँचते हैं लेकिन भरोसा नहीं रहता कि इत्मीनान से बस में चढ़ भी पाएँगे। बस से यात्रा करना किसी कड़ी परीक्षा से गुज़रने के समान है। 

गाड़ी नहीं है इसलिए बस-मेट्रो से यात्रा करता हूँ। मेरी गाड़ी को 2019 में 15 साल हो गए थे। क़ानून की बाध्यता के कारण बेचनी पड़ी; CARS 24 ने मारुति Esteem मात्र 24 हजार में ख़रीदी। समय पर प्रदूषण चेक करवाता था। हर बार सर्टिफिकेट बताता था कि मेरी गाड़ी पास हो गई है यानी कोई प्रदूषण नहीं फैला रही है। सरकार कहती है कि हम सर्टिफिकेट को नहीं मानते, 15 साल बाद तो वो प्रदूषण फैलाती ही है इसलिए तुम उसे नहीं चला सकते। डीजल गाड़ी तो 10 साल बाद ही सड़क से हटा दी जाती दी जाती है। लाखों की गाड़ी कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ती है। 

सरकार किसी आध्यात्मिक गुरु से कम नहीं है। परोक्ष रूप से सरकार यह संदेश देती है- हे नादान प्राणी! अपनी गाड़ी से इतना मोह मत पाल। इस दुनिया में जो आया है, उसे एक न एक दिन जाना ही है। अपनी गाड़ी को शांति से विदा कर और नई गाड़ियों को आने का रास्ता दे। नई गाड़ी आएगी तो उसे अपनी मन की आँखों से देखना; आत्मा वही है, उसने सिर्फ वस्त्र बदले हैं।

चलो मान लिया कि एक निश्चित समय अवधि के बाद पेट्रोल और डीजल गाड़ियाँ प्रदूषण फैलाती हैं। सरकार ने उन्हें हटा भी दिया है फिर भी दिल्ली में प्रदूषण क्यों नहीं रूक रहा है? 

नई गाड़ी ना ख़रीदने की एक प्रमुख वजह यह होती है कि एक उम्र के बाद लाइसेंस नवीकरण में संशय रहता है। दूसरी बात, सीनियर सिटीज़न को कभी कभार बाहर निकलना होता है इसलिए कई लाख रुपए फँसाने का कोई औचित्य नहीं है। उस पैसे से वह अपनी सुरक्षा पुख्ता करता है। 

सोमवार (13 अगस्त 2023) को मुझे कहीं जाना था। बस से यात्रा के दौरान यात्रियों, कंडक्टर और ड्राइवर का मनोविज्ञान पढ़ने का अवसर मिलता है। बस यात्रा में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। एक यात्री ने बड़े प्यार से जेब से ₹10 का नोट निकाला। कंडक्टर ने उसे दो तीन बार अपनी पारखी नजरों से घूरा और कहा कि दूसरा नोट दो। यात्री ने अपने नोट को दो-तीन बार वैसे ही देखा जैसे कोई बाप बार-बार परीक्षा में फेल होने वाले अपने नालायक़ बच्चे को देखता है। यात्री ने लाचारी से कहा कि मेरे पास कोई दूसरा नोट नहीं है। कंडक्टर ने कहा कि तो फिर अगले स्टॉप पर उतर जाना। मैं बग़ल की सीट से देख रहा था कि उस नोट में कोई ख़ामी नहीं थी फिर भी कंडक्टर की मनमानी थी। मेरा अनुभव यह कहता है कि इस देश में कोई भी व्यक्ति, छोटी सीट पर बैठा है या बड़ी सीट पर, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस सीट होनी चाहिए और उस पर एक हाड़-मांस का आदमी (इंसान जानबूझ कर नहीं लिखा) बैठा होना चाहिए, उसके बाद वह अपनी ताक़त का नाजायज़ फ़ायदा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। 

नोट:- अपवाद हर जगह होते हैं इसलिए कभी कभार 'सीट' पर (यानी कुर्सी पर) आदमी के बजाय इंसान भी बैठ जाता है और उसकी कार्यशैली में इंसानियत दिखती है।


शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

हरियाणा सरकार के 'सफेद' हाथी ने रौंदा बच्चों का भविष्य और खा गया खज़ाना


एक सफेद हाथी है, अपने हरियाणा में. ग़नीमत है कि यह सफेद हाथी हरियाणा में हैं वरना अपने 'कर्मठ', 'कर्तव्यपरायण' और 'पराक्रमी' नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री सभी ईर्ष्या से जलभुन जाते और खुद के अस्तित्व पर अफसोस ज़ाहिर करते कि हमारे रहते हुए ऐसा नायाब हाथी कहीं और कैसे हो सकता है. इस अनोखे हाथी की ख़सूसियत यह है कि यह पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कार्यकाल में पैदा हुआ और मुख्यमंत्री मनोहर लाल के संरक्षण में फलफूल रहा है.                 
  इस हाथी की खुराक पर किसी का भी ध्यान नहीं है. वह जितना खाता है उसके मुताबिक काम नहीं करता. इससे दो बातें साबित होती हैं- एक, सरकार में धृतराष्ट्रों की संख्या ज्यादा हो गई है और वो कुछ नहीं देख पा रहे हैं ; दो, शकुनियों की संख्या बढ़ गई है जो अपनी कुचालों और कुकृत्यों से इस हाथी को संरक्षण दे रहे हैं.
   इस सफेद हाथी का नाम है- स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफोर्मिंग एंड विजुअल आर्ट्स जिसे संक्षेप में SUPVA (सुपवा) कहते हैं और यह रोहतक में रहता है. जन्म भी वहीं हुआ, 2011 में. पहले यह इंस्टीट्यूट बना फिर 2014 में यूनिवर्सिटी का रूप लिया.
हरियाणा के बच्चों की फ़िल्म, टेलीविजन, डिज़ाइन, फाइन आर्ट्स, अर्बन प्लानिंग और आर्किटेक्चर से जुड़े क्षेत्रों में कलात्मक प्रतिभा निखारने के मकसद से इस यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है. इसमें चार संस्थान हैं जो 14 तरह के अंडर ग्रेजुएट कोर्स की सुविधा मुहैया कराते हैं. ये संस्थान हैं- स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ फ़िल्म एंड टेलीविजन, स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ फाइन आर्ट्स, स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन और स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर. बच्चों की प्रतिभा का तो सही आकलन करना फिलहाल मुमकिन नहीं है लेकिन वहां का स्टाफ ज़बरदस्त प्रतिभाशाली है. एक मिसाल से उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
     फ़िल्म और टेलीविजन के बच्चों को अपने कोर्स के तहत एक शॉर्ट फ़िल्म बनानी होती है. उस फ़िल्म के लिए मुम्बई से एरी अलेक्सा (ARRI ALEXA) कैमरा किराए पर मंगवाए जाते हैं. एक कैमरे का प्रतिदिन किराया 32000 रुपए है. साल में एक कैमरा 10 दिन के लिए और दो कैमरे 60 से अधिक दिनों के लिए किराए पर लिए जाते हैं. यदि दो कैमरे 60 दिन के लिए मान लिए जाएं तो  सालाना किराया 41.60 लाख रुपए बैठता है. यह सिलसिला 2011 से चल रहा है. इस हिसाब से कैमरा किराए पर अब तक करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं. कभी किसी ने सुझाव दिया कि यूनिवर्सिटी अपने कैमरे खरीद ले तो एक साल में उनकी लागत निकल जाएगी. यह सुझाव इस दलील से खारिज कर दिया गया कि टेक्नोलॉजी बहुत तेज़ी से बदल रही है इसलिए कुछ महीनों में ही वो कैमरे बेकार हो जाएंगे. टेक्नोलॉजी तो बहाना है, असल वजह कमीशन है. कैमरे खरीद लेंगे तो मोटा कमीशन बंद हो जाएगा.
कमीशन के रास्ते बंद करने की सलाह देने वालों का क्या हश्र होता है, उसका भी एक ट्रेलर देख लें. यूनिवर्सिटी के एक वाईस चांसलर और पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट से  डिप्लोमाधारी तीन प्रोफेसरों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. इन चारों का गुनाह था सरकारी खजाने की लूट रोकने का प्रयास. वाईस चांसलर इस लूट के खिलाफ लड़ाई में हार गए और पद छोड़ना पड़ा. एक प्रोफेसर भारी किराए पर कैमरे लेने की नीति का लगातार विरोध कर रहे थे; नई नीति बनाने की बात कर रहे थे. दूसरे प्रोफेसर ने बहुत कम किराए पर दिल्ली से कैमरे दिलवा दिए थे. तीसरे प्रोफेसर ने बच्चों को  महंगे कैमरों के किरायों पर पैसा बर्बाद होने से रोकने का बेहद सस्ता विकल्प बता दिया था. उन्होंने बच्चों से कहा था कि फ़िल्म तो आप मोबाइल के कैमरा से भी बना सकते हैं. बस उनका यही अपराध था. कमिशनखोरों ने किफायत की सलाह देने वाले तीसरे प्रोफेसर के खिलाफ सुनियोजित तरीके से मोर्चा खोल दिया. खुद सामने आने के बजाए स्टूडेंट्स को भड़का दिया और उनके खिलाफ बड़ा अभियान खड़ा कर दिया. वो 'बेचारा' कुछ ही महीनों में यूनिवर्सिटी छोड़ कर चला गया. एक वाईस चांसलर और तीन प्रोफ़ेसरों की बलि चढ़ने के बाद किसी में यह साहस नहीं हुआ कि वो धन की बर्बादी रोकने के बारे में सोच भी ले, सुझाव देना तो बहुत दूर की बात है. यूनिवर्सिटी में कमिशनखोर इतने ताकतवर हैं कि वाईस चांसलर और प्रोफ़ेसर तक नहीं टिक पाए. अब तो इस ताकतवर लॉबी से हर ईमानदार व्यक्ति भयभीत है.
  यह सच है कि इतने महंगे कैमरों पर कोई इंस्टीट्यूट या यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग नहीं देती है. मकसद फ़िल्म बनाने की तकनीक सिखाना है, कोई फर्क नहीं पड़ता कैमरा महंगा है या सस्ता. आजकल राष्ट्रीय चैनलों में भी बढ़िया क्वालिटी के मोबाइल कैमरों से कवरेज की जाती है. जब चैनल मोबाइल कैमरों से चल रहे हैं तो यूनिवर्सिटी में ARRI ALEXA पर ज़ोर क्यों. यह ठीक वैसा ही है कि किसी को बीएमडब्लू, मर्सेडीज़ या ऑडी कारों से ड्राइविंग सिखाई जाए.
  इतने महंगे कैमरों पर ट्रेनिंग लेकर डिग्री लेने वाले बच्चों को महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी ने आईना दिखा दिया. तीन के बजाय पांच साल में कोर्स पूरा करने की मजबूरी में धकेले गए पहले बैच के बच्चों को महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी से डिग्री दिलवाई गई. इंस्टीट्यूट को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के बाद लालफीताशाही के कारण ज़रूरी उपकरणों की समय पर खरीद नहीं हो पाई और बच्चों का कोर्स तीन के बजाय पांच साल में पूरा हुआ जबकि प्रॉस्पेक्टस में तीन साल का कोर्स बताया गया था. इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं था. महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी ने पांच साल लगाने के बावजूद बच्चों को साधारण बीए की डिग्री दी है. इस डिग्री के आधार पर यूनिवर्सिटी उन्हें एमए में भी दाखिला नहीं दे रही है. इस साधारण डिग्री के साथ उन्हें कोई प्रोफेशनल नहीं मान रहा इसलिए इन्हें अपनी योग्यता से संबंधित कहीं कोई काम नहीं मिल रहा. बच्चे मुम्बई में संघर्ष कर रहे हैं लेकिन आशा की कोई किरण नहीं दिख रही है. अब बच्चे हरियाणा सरकार से दो साल का मुआवजा मांग रहे है.  यदि मुआवजे की थोड़ी बहुत रकम मिल भी गई तो भी उनके दो साल वापस नहीं मिल सकते. इन बच्चों का तो भविष्य बर्बाद हो गया है और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ हरियाणा सरकार ज़िम्मेदार है.

लोकतंत्र नहीं सिखाता, आपस में मेल रखना

अपन के लोकतंत्र में लोक भी है, तंत्र भी है, फिर भी  स्वस्थ लोकतंत्र नहीं है; परिपक्व ना दिखने वाले मौजूदा लोकतंत्र में जो नहीं दिखता, वो है निःस्वार्थ भाव से जनसेवा का जज़्बा. सेवा के नाम पर महज कुर्सी की दौड़ है; इसे पाने के लिए जनसेवक का चोगा पहने 'अपने नेता' कुछ भी कर सकते हैं; कुछ भी का मतलब कुछ भी. अपनी ही पार्टी के नेताओं की काबिलियत पर प्रश्नचिह्न लगा कर निकम्मा नाकारा बता सकते हैं; अपनी ही पार्टी में विरोधियों का राजनीतिक कद छोटा करने के लिए बग़ावत भी करनी पड़े तो चूकते नहीं हैं. काला-सफेद सब कुछ कर सकते हैं.
     विपक्षी दलों की आलोचना तो सभी करते हैं लेकिन अपने देश के लोकतंत्र में ऐसी परम्पराएं पनप रही हैं कि विपक्षी दलों की ज़रूरत ही नहीं है. जो काम विपक्ष के नेता करते हैं वो अब अपनी ही पार्टी के लोग कर देते हैं.
   झज्जर ज़िले के मुंडाहेड़ा गांव में रैली के दौरान अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री मनोहर लाल पर केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह जिस तरह बरसे, उससे तो यही लगता है स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है. राज्य के दो विपक्षी दलों कांग्रेस और इनेलो का काम अकेले केंद्रीय मंत्री कर रहे हैं. राव इंद्रजीत सिंह केंद्र में मंत्री हैं. मंत्री का मतलब देश के सबसे जिम्मेदार चुनिंदा लोगों में से एक. उन पर  राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक जिम्मेदाजियों का भार सबसे अधिक है.  इसके बावजूद राव साहब ने  मुुंडाहेड़ा में खुल्लमखुल्ला कह दिया कि मुख्यमंत्री के संरक्षण में समाज जाति के आधार पर बंट रहा है. समाज में भाईचारा और सौहार्द खत्म हो रहा है. उन्होंने कहा- "यह कास्ट डिवाइड तभी खत्म होगा जब ऐसे इंसान को सीएम बनाया जाए जो सीएम बनके नेता ना बने, बल्कि नेता हो, वो सीएम बने.'' 

इस बहाने उन्होंने अपना सीएम बनने का दावा भी ठोक दिया और भावी योजना का एलान करते हुए यह भी कहा कि अगर मुझे मुख्यमंत्री बनाया तो कास्ट डिवाइड खत्म करने के लिए पूरा समय दूंगा.
राव साहब से एक सवाल बहुत ज़रूरी है. जब आप कांग्रेस में थे तब 2005 में गोहाना कांड हुआ और 2010 में मिर्चपुर कांड. मिर्चपुर में तो 90 साल के एक बुजुर्ग और एक दिव्यांग नाबालिग बच्ची जल कर मर गई थी. तब भाईचारे की भावना क्यों नहीं जागी. क्या तब आपने अपनी सरकार पर खुल्लमखुल्ला प्रहार किया था. क्या आप पीड़ितों से मिलने गए थे.
राव साहब क्यों भूल गए कि वो जिस पार्टी की सरकार में मंत्री हैं, मनोहर लाल उसी पार्टी के मुख्यमंत्री हैं. राव साहब मुख्यमंत्री के साथ अपनी ही पार्टी की भी फजीहत कर रहे हैं. परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काबिलियत को भी चुनौती दे रहे हैं क्योंकि मनोहर लाल का चयन मोदी ने किया है.
इतिहास गवाह है कि लोकसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले राव साहब को अचानक आत्मज्ञान मिलता है कि 'हमारा' मुख्यमंत्री काम नहीं कर रहा है; उसे जगाने या खुद पार्टी से निकलने की पष्ठभूमि तैयार करने के लिए निकल पड़ते हैं 'रैली' का डंडा लेकर. 2014 के चुनाव से पहले भी यही हुआ; अपने मुख्यमंत्री  से तरह तरह के तरीकों से नाराजगी ज़ाहिर कर रहे थे. लब्बोलुआब यह है कि राव साहब को कोई मुख्यमंत्री नहीं भाता. रैली की रिपोर्ट पढ़ते समय अनायास मुंह से निकला-
सानू एक पल चैन ना आवे,
कोई सीएम मन को ना भावे
हाय मैं की करां
राव इंद्रजीत सिंह ने रैली में सहानुभूति बटोरने के लिए भी जबरदस्त पासा फेंका. उन्होंने एलान कर दिया कि 2019 का चुनाव उनका आखिरी चुनाव है और वो मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. कोई नेता आखिरी चुनाव कह कर चुनाव मैदान में उतरता है तो जनता सहानुभूति दिखा कर आखिरी इच्छा पूरी करने की कोशिश करती है. साथ में यह भी कह दिया कि कास्ट डिवाइड खत्म करने के लिए ऐसे इंसान को मुख्यमंत्री बनाना जरूरी है जो नेता हो; मुख्यमंत्री से नेता ना बना हो. इस लाइन से मनोहर लाल का पत्ता साफ कर खुद को यानी पके हुए नेता को मुख्यमंत्री बनाने की अपील कर रहे हैं. शायद राव साहब यह नहीं जानते कि चुनाव जीतने के लिए नेता होना ज़रूरी है; राजकाज चलाने के लिए नेता होना ज़रूरी नहीं होता. यह बात मनोहर लाल ने साबित कर दी है.
मुंडाहेड़ा में रैली कर राव साहब यह भी साबित करना चाह रहे थे कि वे अहीरवाल से बाहर भी बड़ी रैली कर सकते हैं. इससे राज्य में यह सन्देश जाएगा कि वे गैर जाटों के भी नेता हैं. अपना 'अहीर' नेता का टैग उतारने के लिए राव साहब जाट बहुल क्षेत्रों में और भी कई रैलियां कर सकते हैं. बीजेपी के सांसद राजकुमार सैनी ने गैर जाटों को लामबंद करने के लिए जो विषवमन किया है उसका लाभ उठाने की रणनीति भी बना सकते हैं. लेकिन इसका लाभ राव साहब को मिलता नहीं दिख रहा है क्योंकि ग़ैर जाट राजनीति की फेंचाइजी फिलहाल राजकुमार सैनी के पास है.
अहीरवाल में योगेंद्र यादव की वोट कटवा भूमिका के कारण नई पार्टी पर सवार होकर सत्ता की वैतरणी पार करना राव साहब के लिए बहुत मुश्किल होगा. इनके सीएम बनने के इरादों में आप आदमी पार्टी भी फच्चर फँसायेगी. कांग्रेस, बीजेपी और इनेलो-बसपा गठबंधन ने पहले ही समीकरण उलट पुलट कर रखे हैं. इन हालात में क्या हरियाणा इंसाफ कांग्रेस को महज 'सहानुभूति' सत्ता तक पहुंचा पाएगी. इस टेढ़े सवाल का सीधा जवाब ढूंढना नाइंसाफ़ी होगी.

रविवार, 15 अप्रैल 2018

वक्त बहुत बदल गया



समय कितना बदल गया है, इसका एहसास आज के दिन सबसे अधिक होता है. 1974 या 1975 में 14 अप्रैल की घटना है. साल ठीक से याद नहीं आ रहा. इमरजेंसी लगने से पहले की घटना है. त्रिनगर से 91 नंबर बस से सुबह करीब 9:30 बजे केंद्रीय सचिवालय पहुंचा. उन दिनों संसद परिसर के सारे गेट खुले होते थे इसलिए सभी लोग केंद्रीय सचिवालय से संसद मार्ग आने के लिए संसद परिसर के रास्ते से शार्ट कट मारते थे. कोई जांच नहीं, कोई टोकाटाकी नहीं, कोई पाबंदी नहीं, कोई हिचक नहीं. संसद परिसर से गुज़रने वाला रास्ता आम रास्ता हो गया था. उन दिनों बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती पर राजपत्रित अवकाश यानी गैज़ेटेड हॉलिडे नहीं होती थी. सभी सरकारी ऑफिस खुले होते थे.
उस दिन भी संसद परिसर से लोगों का रेला गुज़र रहा था. मैं भी वहां से गुज़र रहा था. रास्ते से करीब 20-25 फुट की दूरी पर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की विशाल प्रतिमा है. उनकी जयंती पर हर साल वहां माल्यार्पण होता है. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी माल्यार्पण के लिए आई थीं. कुछ सांसद और कई गण्यमान्य व्यक्ति मौजूद थे. अच्छा खासा जमावड़ा और प्रधानमंत्री को देख कर  मैं भी रूक गया और वहां काफी देर तक प्रोग्राम का आनंद लिया. आज की पीढ़ी ऐसे वक्त की कल्पना भी नहीं कर सकती कि कभी ऐसा भी वक़्त होता था जब प्रधानमंत्री सुरक्षा के कड़े घेरे में नहीं  होते थे. आम जनता के बीच रहते थे. यह सोच कर ही कितना सुखद लगता है कि मैने बिना किसी निमंत्रण के इतने क़रीब रह कर देर तक प्रधानमंत्री के साथ प्रोग्राम का आनंद लिया. इस देश के किसी भी व्यक्ति ने और मैंने भी उस समय कल्पना भी नहीं की थी कि हम अपने ही प्रधानमंत्री से दूर हो जाएंगे. कारण कुछ भी रहे हों, वक़्त बहुत बदल गया है. अब ना वो रास्ते रहे और ना ही प्रधानमंत्री के करीब रह कर प्रोग्राम देखने के अवसर. अब तो टीवी स्क्रीन पर प्रधानमंत्री को देख कर संतोष कर लेते हैं.

रविवार, 21 अगस्त 2011

यूं भी जिया जाता है



मेरे अपने के आदर्शों से प्रेरणा पाकर लिख रहा हूं। दुनियादारी के पैमाने पर गढ़े रिश्तों में से कोई छोर ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे तो आप कहीं और उलझ जाएंगे और जिस मुद्दे पर आपको लाना चाहता हूं वो हाशिए पर चला जाएगा। स्वार्थ को आधुनिक सभ्यता से जोड़ कर समाज को पहचान देने वाले मेरे महानगर दिल्ली में एक न्यारा परिवार है जो स्वार्थों से कोसों दूर समाज को कुछ देने की चाह में मुसलसल काम कर रहा है। इस परिवार से दिसंबर 1972 से नाता है। 39 साल पहले मुझे इस शहर में पांव जमाने के लिए मेरी बड़ी बहन के अलावा इसी नातेदार परिवार ने हर वक्त संबल दिया। इस परिवार और इसकी धुरी करुणा और दया की साक्षात प्रतिमूर्ति रेणु जैन के कामों पर कभी विस्तार से लिखूंगा। अब यहां उस संवाद का जिक्र करूंगा जो टेलीफोन पर हुआ और जिससे मैं बेहद मुतास्सिर हूं। इस संवाद का जिक्र इसलिए भी करना चाहता हूं कि किसी एक व्यक्ति ने भी प्रेरणा पा कर यह राह पकड़ ली तो मेरा लिखना सार्थक हो जाएगा।
त्रिनगर के देवाराम पार्क में एक उच्च प्राथमिक विद्यालय, जिसे मिडिल स्कूल कहते हैं, कई वर्षों से चल रहा है। सरकार से कई वर्षों पहले मान्यता का मान पा चुका महावीर इंटरनेशनल स्कूल सिर्फ नामभर नहीं है, इसने कई आदर्श उदाहरण पेश किए हैं इसलिए यह स्कूल इलाके में बच्चों के सुनहरी भविष्य का प्रतीक बन गया है। इस स्कूल को इस मुकाम तक पहुंचाने में रेणु जी ने 27 वर्ष अथक परिश्रम किया है। त्याग, निष्ठा और ईमानदारी के साथ परिश्रम का मेल होने पर ही महावीर इंटरनेशनल जैसा स्कूल तैयार होता है।
स्कूल की ख्याति को देखते हुए हर मां-बाप यह चाह रखता है कि उनके बच्चे का महावीर इंटरनेशनल स्कूल में दाखिला हो। लेकिन, सीटें सीमित होने के कारण स्कूल प्रबंधन की भी मजबूरियां हैं-सभी को दाखिला नहीं दिया जा सकता। हर अच्छा स्कूल इस मजबूरी को झेलता है। असली बात अब कहूंगा। अभी तक जो भूमिका तैयार की उसका एक ही मकसद था कि आप मेरी असली बात का मर्म समझ सकें। स्कूल प्रबंधन ने 27 साल के इतिहास में 27 पैसे का भी डोनेशन नहीं लिया। डोनेशन देने वाले आते हैं और उन्हें हाथ जोड़ कर वापस भेजा जाता है। चारों ओर आपाधापी, लूटखसोट, बेइमानी और छल प्रपंच का माहौल है; धन तरक्की का मापदंड हो गया है; विद्या के तथाकथित मंदिर अभिभावकों को लूटने का कोई मौका नहीं चूकते; बिना डोनेशन दाखिला देना अपराध समझते हैं। ऐसे माहौल में इस तरह के आचरण की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। मै थोड़ा बहुत मनोविज्ञान समझता हूं, उस आधार पर कह रहा हूं कि आपको भी यकीन नहीं हो रहा होगा। आपकी भी गलती नहीं है। ऐसे माहौल में कोई इतने बड़े सच की उम्मीद कैसे कर सकता है। जब सच खांटी सच हो, स्याह सच हो तो उस पर आसानी से यकीन नहीं होता। पर यह सच वैसा ही सच है जैसे सचमुच सच होता हैं; मां की ममता जैसा सच।
दिल्ली के सभी स्कूल यानी सभी स्कूल सरकार से जमीन लेते समय कई वायदे करते हैं, सभी शर्तें मानने का वचन देते हैं लेकिन किसी स्कूल ने आज तक उन वायदों को पूरा नहीं किया; एक प्रतिशत भी नहीं। अगर स्कूलों की बुनियाद झूठ और फरेब पर टिकी हो तो वो बच्चों को क्या सिखाएंगे। महावीर इंटरनेशनल स्कूल इन सबसे हटकर है। माफ कीजिए, आप भूल से भी यह मत समझ लेना कि मैं तुलना कर महावीर इंटरनेशनल स्कूल को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश कर रहा हूं। तुलना कर सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि थोड़ी बहुत शर्म बची है तो बाकी स्कूलों को सबक लेना चाहिए और अपना रवैया सुधारना चाहिए। बाकी स्कूल क्या सबक लें, यह बताने के लिए फिर महावीर इंटरनेशनल स्कूल की ओर रूख करता हूं। इस स्कूल ने सरकार से एक रुपए की मदद नहीं ली जबकि सैकड़ों गरीब बच्चों को मुत (मुत का मतलब मुत) शिक्षा दे चुका है। आज भी 65 गरीब बच्चे मुत शिक्षा पा रहे हैं। निहायत गरीब परिवार में जन्मे सेल्वराज ऐसे ही भाग्यशाली बच्चों में एक था जिसकी नींव इसी स्कूल में तैयार हुई और वो भी मुत। रेणु जी ने बताया कि आज सेल्वराज एक कंपनी में 85 हजार रुपए तनख्वाह पा रहा हैं। रेणु जी सेल्वराज की कामयाबी की कहानी बताते हुए बेहद खुश थीं, शायद अपने बच्चों की तरक्की पर भी इतनी खुश नहीं हुई होंगी।
रेणु जी का मानना है कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली ही दोषपूर्ण हैं। घिसेपिटे ढर्रे पर बच्चों को पढ़ाया जाता है। बच्चों का मनोविज्ञान समझे बिना किताबें रटवा दी जाती हैं। उन्हें सिर्फ नौकरी पाने लायक बनाया जाता है। मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर दिया जाता है। कितनी दुखद स्थिति है कि स्कूलों में मोरल साइंस जैसे अहम विषय को सबसे कम तवज्जो दी जाती है जबकि गिरते सामाजिक मूल्यों को देखते हुए इस विषय को सबसे अधिक अहमियत दी जानी चाहिए। अफसोस है कि स्कूल दुुकानों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। इन्हें विद्या मंदिर कहना बेमानी होगा। गली गली में स्कूल खुल गए हैं जहां कम तनख्वाह पर काम करने वाले अयोग्य अध्यापक बच्चों का भविष्य बिगाड़ते हैं। बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करना सबसे बड़ा अपराध है और इस अपराध को रोकना सरकार और अभिभावकों की जिम्मेदारी है।