सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

बहुत बड़ी दुविधा होती है जब ख़ुद के बारे में कुछ लिखना पड़ता है। कहीं ज़्यादा हो गया तो हज़ार तरह के कमेंट सुनने-पढ़ने को मिलेंगे। ऊंची छोड़ दी, बड़बोला हो गया है , औकात से बाहर बोलने लगा है आदि-आदि कमेंट अनादि काल तक आलोचकों के तरसकश से निकलते रहेंगे। आप ख़ुद को कोसेंगे कि क्या पड़ी थी ब्लॉग शुरू करने की?अब तक बिना ब्लॉग के भी ज़िंदगी अच्छी-भली चल रही थी।
कहीं उलट हो गया और आलोचकों के व्यंगवाणों से आहत होने के डर से अति विनम्रता की चादर ओढ़कर आप सबके सामने आ गया तो ग़ैर आलोचक ( वो लोग, जो ख़ानदानी परंपराओं का निर्वाह करने की विवशता में आलोचना करते हैं लेकिन खुर्राट आलोचक की विधिवत उपाधि नहीं मिली है ) उस चादर को , जो मैली सी नहीं है लेकिन नाज़ुक सी है, फाड़कर तार-तार कर देंगे। इन दो किनारों के बीच खड़ा हूं। सच बोलने की आदत और दोनों किनारों पर बैठे हुए डर के कारण ख़ुद को संतुलित बनाकर ही कहूंगा। फिर भी कुछ भूल-चूक रह जाए तो माफी भी मांग लूंगा। बात ब्लॉग शुरू करने की आई तो सभी मित्रों का पहला सवाल था- अरे ! अभी तक आपने ब्लॉग शुरू नहीं किया ? आजकल ब्लॉग के बिना पढ़े -लिखे की नहीं बन पाती। आउट-डेटेड माना जाता है। बात एकदम सही है। आजकल की पत्रकारिता के ज़माने में हम जैसे लोग आउट डेटेड माने जाते हैं। हम लफ्फाजी नहीं करते, तथ्यों की जांच परख किए बिना उनकी इस्तेमाल नहीं करते, एक तरफा ख़बर नहीं करते, फल-सब्ज़ी का ठेला लगानेवालों की तरह ख़बर नहीं बेचते, आर्कुट पर अपना प्रोफाइल डालकर अति आधुनिक होने का स्वांग नहीं रचते, ख़बरों को प्रोफाइल की कसौटी पर नहीं कसते, मर्सिडिज़ का विज्ञापन लेने के लिए झोंपड़ी में ग़रीब की बेटी के साथ हुए बलात्कार की ख़बर को बनने से नहीं रोकते, ऐसे अनिगनत प्वाइंट हैं, जिन पर हम खरे नहीं उतरते और आउट डेटेड कैटेगरी में दकेल दिए जाते हैं।
चलिए आगे बढ़ता हूं। मैं आउट डेटेड पत्रकार वर्षों से कलमघिस्सू रहा। जनसत्ता से जुड़ा, सरकारी नौकरी छोड़कर। प्रबाष जोशी के कड़े इम्तिहान को पास कर इंटरव्यू देने पहुंचा तो एक सवाल ये भी पूछा गया - सरकारी नौकरी जैसी जॉब सिक्यूरिटी नहीं है फिर भी पत्रकार बनना चाहते हैं। जवाब जो सूझा, वो दे दिया लेकिन इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों को यह ज़रूर लगा होगा कि कीड़ा काटा हुआ है, आने दो। दरवाज़े कोल दिए गए और मैं पत्रकारिता की दुनिया में 1983 में प्रवेश कर गया। अर्थशास्त्र में एमएम किया था, साथ में हिंदी में भी एमए था, इसलिए आर्थिक पत्रकारिता की ज़िम्मेदारी दी गई। मेरा प्रिय विषय भी था इसलिए इस ज़िम्मेदारी को क़रीब 16 साल निभाया। लेकिन जनसत्ता में हर विषय पर ख़बर लिखने की छूट होने के कारण खेल-कूद को छोड़कर सभी विषयों की रिपोर्टिंग की।
जनसत्ता से जुड़ने से पहले दूरदर्शन में समाचार वाचक ( आज की भाषा में एंकरिंग कह सकते हैं) हो गया ता। कमलेस्वर जी ने मुझे एप्रुव किया था। उन दिनों लिखित परीक्षा के बाद आडिशन देना होता था। गंवई माहौल से आया था फिर भी दोनों कसौटियों पर खरा उतरा और मुझे न्यूज़ रीडिंग का मौक़ा दिया गया। उन दिनों शाम छह बजे नया बुलेटिन शुरू हुआ था, सिर्फ दो मिनट का। खड़े होकर पढ़ना पढ़ता था। उसी बुलेटिन के लिए 27 दिसंबर 1981 को पहला मौक़ा मिला। 27 साल पहले शुरू किए इस सफ़र में मैं आज भी युवा पीढ़ी से क़दम मिलाकर चल रहा हूं। इसके लिए मैं हमेशा अपने दर्शकों का आभारी रहूंगा। सबसे अधिक आभारी हूं टोटल टीवी के डायरेक्टर विनोद मेहता का, जिन्होने युवा एंकरों की लंबी कतार के बीच मुझे खड़ा करने का रिस्क लिया। उनकी उम्मीदों पर मैं खरा उतरा, ये तो दावे के साथ नहीं कह सकता लेकिन भरपूर प्रयास ज़रूर किया।
क्रमश:

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