शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

बस का एक सफर

आजकल मेट्रो से यात्रा करता हूँ; जहाँ मेट्रो सीधी नहीं जाती, वहाँ के लिए बस तो है ही। दिल्लीवासियों के लिए बस का सहारा शाश्वत है; बस! बसों का रंग रूप बदलता है; चाल और हाल में कोई खास बदलाव नहीं है। बसें 'बस स्टैंड' पर नहीं रूकतीं; वर्षों से यही देख रहा हूँ। स्टैंड पर बस ना रोकने की कई बार ड्राइवरों की भी मजबूरी होती है; बस स्टैंड पर रेहड़ी और रिक्शा वालों नें क़ब्ज़ा किया हुआ है इसलिए बीच सड़क पर बस रोकी जाती है। महिलाएँ, बच्चे, दिव्यांग और सीनियर सिटीज़न बाधाएँ पार कर बस के दरवाज़े तक पहुँचते हैं लेकिन भरोसा नहीं रहता कि इत्मीनान से बस में चढ़ भी पाएँगे। बस से यात्रा करना किसी कड़ी परीक्षा से गुज़रने के समान है। 

गाड़ी नहीं है इसलिए बस-मेट्रो से यात्रा करता हूँ। मेरी गाड़ी को 2019 में 15 साल हो गए थे। क़ानून की बाध्यता के कारण बेचनी पड़ी; CARS 24 ने मारुति Esteem मात्र 24 हजार में ख़रीदी। समय पर प्रदूषण चेक करवाता था। हर बार सर्टिफिकेट बताता था कि मेरी गाड़ी पास हो गई है यानी कोई प्रदूषण नहीं फैला रही है। सरकार कहती है कि हम सर्टिफिकेट को नहीं मानते, 15 साल बाद तो वो प्रदूषण फैलाती ही है इसलिए तुम उसे नहीं चला सकते। डीजल गाड़ी तो 10 साल बाद ही सड़क से हटा दी जाती दी जाती है। लाखों की गाड़ी कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ती है। 

सरकार किसी आध्यात्मिक गुरु से कम नहीं है। परोक्ष रूप से सरकार यह संदेश देती है- हे नादान प्राणी! अपनी गाड़ी से इतना मोह मत पाल। इस दुनिया में जो आया है, उसे एक न एक दिन जाना ही है। अपनी गाड़ी को शांति से विदा कर और नई गाड़ियों को आने का रास्ता दे। नई गाड़ी आएगी तो उसे अपनी मन की आँखों से देखना; आत्मा वही है, उसने सिर्फ वस्त्र बदले हैं।

चलो मान लिया कि एक निश्चित समय अवधि के बाद पेट्रोल और डीजल गाड़ियाँ प्रदूषण फैलाती हैं। सरकार ने उन्हें हटा भी दिया है फिर भी दिल्ली में प्रदूषण क्यों नहीं रूक रहा है? 

नई गाड़ी ना ख़रीदने की एक प्रमुख वजह यह होती है कि एक उम्र के बाद लाइसेंस नवीकरण में संशय रहता है। दूसरी बात, सीनियर सिटीज़न को कभी कभार बाहर निकलना होता है इसलिए कई लाख रुपए फँसाने का कोई औचित्य नहीं है। उस पैसे से वह अपनी सुरक्षा पुख्ता करता है। 

सोमवार (13 अगस्त 2023) को मुझे कहीं जाना था। बस से यात्रा के दौरान यात्रियों, कंडक्टर और ड्राइवर का मनोविज्ञान पढ़ने का अवसर मिलता है। बस यात्रा में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। एक यात्री ने बड़े प्यार से जेब से ₹10 का नोट निकाला। कंडक्टर ने उसे दो तीन बार अपनी पारखी नजरों से घूरा और कहा कि दूसरा नोट दो। यात्री ने अपने नोट को दो-तीन बार वैसे ही देखा जैसे कोई बाप बार-बार परीक्षा में फेल होने वाले अपने नालायक़ बच्चे को देखता है। यात्री ने लाचारी से कहा कि मेरे पास कोई दूसरा नोट नहीं है। कंडक्टर ने कहा कि तो फिर अगले स्टॉप पर उतर जाना। मैं बग़ल की सीट से देख रहा था कि उस नोट में कोई ख़ामी नहीं थी फिर भी कंडक्टर की मनमानी थी। मेरा अनुभव यह कहता है कि इस देश में कोई भी व्यक्ति, छोटी सीट पर बैठा है या बड़ी सीट पर, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस सीट होनी चाहिए और उस पर एक हाड़-मांस का आदमी (इंसान जानबूझ कर नहीं लिखा) बैठा होना चाहिए, उसके बाद वह अपनी ताक़त का नाजायज़ फ़ायदा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। 

नोट:- अपवाद हर जगह होते हैं इसलिए कभी कभार 'सीट' पर (यानी कुर्सी पर) आदमी के बजाय इंसान भी बैठ जाता है और उसकी कार्यशैली में इंसानियत दिखती है।


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