बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

वो उफान भी देखा और अब......


दूरदर्शन और टोटल टीवी में काम करने के अनुभाव के बारे में आगे चलकर सुनाऊंगा। एक बार फिर पीछे जनसत्ता की ओर। नया अख़बार था। कई सवाल थे। कैसा होगा ? जमे हुए अख़बारों के सामने क्या टिक पाएगा ? क्या एक्सप्रेस का अनुवाद होगा ? क्या एक्सप्रेस की छाया में धूमिल दिखाई देगा ? स्टाफ में सभी यंग थे। कड़ी परीक्षा से गुज़रने के बाद नियुक्ति मिली थी सभी को। लेकिन प्रतिभाशाली टीम थी। सभी लिक्खाड़ , पेशे के प्रति समर्पित थे। प्रभाष जोशी संपादक थे। उन्होने नियुक्तियों के लिए विज्ञापन से पहले ही तय कर लिया - पैरवी वाले किसी व्यक्ति को नहीं रखना है। कहा था- अख़बार चलाना है, बंद करवाना नहीं है। इसलिए योग्यता की छलनी से छनकर जो आएगा, वही जनसत्ता में काम कर पाएगा। मुझे भी अवसर मिला और 21 साल ( क़रीब ढाई महीने कम ) जनसत्ता से जुड़ा रहा। अख़बार बॉक्स आफिस पर हिट फिल्म की तरह चल निकला। खाड़की क़िस्म की यंग ब्रिगेड की मेहनत और सृजनशीलता का असर अख़बार के पहले पन्ने से अंतिम पन्ने तक दिखाई देता था। सभी में जोश था , अख़बार को नई ऊंचाईयां देने का जज़्बा था। रात-दिन काम किया और मेहनत करने की नींव वहीं पड़ी।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उत्तर भारत में हुए सिख विरोधी दंगों की रिपोर्टिंग में जनसत्ता ने नई पहचान बनाई। ख़बरें ये भी आ रही थीं कि राज्यों की राजधानियों में अख़बार ब्लैक में बिक रहा है। जयपुर में 10 रुपए में बिकते सुना गया। प्रिटिंग की ज़्यादा क्षमता न होने के कारण दो लाख 10 हज़ार का प्रिंट होने के बाद संपादक को अपील जारी करनी पड़ी- ज़्यादा नहीं छाप सकते, मिल बांट कर पढ़िए। शायद ऐसा दौर किसी अख़बार ने न देखा हो। लेकिन आज जिस दौर से अख़बार गुज़र रहा है , वह दौर भी किसी अख़ाबर ने नहीं देखा होगा।

अख़बार की बुलंदी और फिर पोलियोग्रस्त होने के लिए इसके संपादक ही ज़िम्मेदार रहे हैं। राग-द्वेष वाले संपादकों ने अपने और चेहतों के हित के लिए सत्यानाश कर दिया। मुझे स्कूल के एक हेडमास्टर की सुभाषित याद आती है, जो प्रभाश जी के बाद आए सभी संपादकों पर खरी उतरती है।
हेडमास्टर लजी कहा करते थे- जिस स्कूल में जाता हूं, पहले थोड़ा विकास करता हूं, विश्वास जीतने के बाद विनाश शुरू करता हूं और फिर सत्यानाश कर देता हूं।

अखाड़ा बन गया थखा अख़बार का दफ़्तर। आकंठ डूबे थे संपादक जी। बाड़ ही खेत को खा रही थी, भला खेत कैसे बचता !

उन सभी "महान" संपादकों के बारे में लिखने के मन है लेकिन उनके लिए कुछ भी लिखकर उन यादों को ताज़ा नहीं करना चाहता;मन ही ख़राब होगा, हासिल कुछ नहीं होगा। हिंदी का दुर्भाग्य है कि उसे सुपात्र संपादक कम ही मिल पाते हैं।

जनसत्ता का ज़िक्र प्रभाष जी को याद किए बिना अधूरा रहेगा। उनमें सिर्फ़ एक ख़ूबी पाई। उन्होने अपने पत्रकारों को काम करने की ख़ूब छूट दी। 21 वर्षों में किसी पत्रकार की ख़बर रोकते नहीं देखा। बड़े संस्थान का अख़बार था इसलिए विज्ञापन के लालच में ख़बर करने को कभी प्रोत्साहन नही दिया। एक-दो बार तो ऐसा देखा कि किसी कंपनी की नेगेटिव ख़बर उसके विज्ञापन के बगल में छापी गई। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ख़बरों को कितना महत्व दिया जाता था। कहीं कोई समझौता नहीं । इस ख़ूबी के अलावा क्या था प्रभाष जोशी में, वो गोल कर रहा हूं। ये मत समझिए कि 'जोशीवाद' से प्रभावति हूं। बस ! जूठ नहीं बोल सकता, सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं। पर ये वायदा रहा , अगले अंक उसी शख़्सियत का ज़िक़्र करूंगा , जिसके बारे में सच कहने की हिम्मत कर सकूं।

क्रमश:

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